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Mere Ekant Ka Pravesh Dwar | Nirmala Putul

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मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार | निर्मला पुतुल

यह कविता नहीं

मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है

यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं

टिकाती हूँ यहीं अपना सिर

ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर

जब लौटती हूँ यहाँ

आहिस्ता से खुलता है

इसके भीतर एक द्वार

जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं

तलाशती हूँ अपना निजी एकांत

यहीं मैं वह होती हूँ

जिसे होने के लिए मुझे

कोई प्रयास नहीं करना पड़ता

पूरी दुनिया से छिटककर

अपनी नाभि से जुड़ती हूँ यहीं!

मेरे एकांत में देवता नहीं होते

न ही उनके लिए

कोई प्रार्थना होती है मेरे पास

दूर तक पसरी रेत

जीवन की बाधाएँ

कुछ स्वप्न और

प्राचीन कथाएँ होती हैं

होती है—

एक धुँधली-सी धुन

हर देश-काल में जिसे

अपनी-अपनी तरह से पकड़ती

स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे

मैं कविता नहीं

शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ

अपनी काया से बाहर खड़ी होकर

अपना होना!

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यह कविता नहीं

मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है

यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं

टिकाती हूँ यहीं अपना सिर

ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर

जब लौटती हूँ यहाँ

आहिस्ता से खुलता है

इसके भीतर एक द्वार

जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं

तलाशती हूँ अपना निजी एकांत

यहीं मैं वह होती हूँ

जिसे होने के लिए मुझे

कोई प्रयास नहीं करना पड़ता

पूरी दुनिया से छिटककर

अपनी नाभि से जुड़ती हूँ यहीं!

मेरे एकांत में देवता नहीं होते

न ही उनके लिए

कोई प्रार्थना होती है मेरे पास

दूर तक पसरी रेत

जीवन की बाधाएँ

कुछ स्वप्न और

प्राचीन कथाएँ होती हैं

होती है—

एक धुँधली-सी धुन

हर देश-काल में जिसे

अपनी-अपनी तरह से पकड़ती

स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे

मैं कविता नहीं

शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ

अपनी काया से बाहर खड़ी होकर

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